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वेद मानवजाति के लिए सृष्टि में ईश्वरप्रदत्त \'संविधान\' हैं- राकेश कुमार आर्य

By समाचार नाऊ ब्यूरो | Publish Date:16:25:59 PM / Thu, Sep 8th, 2016 | Updated Date: Fri ,10 Feb 2017 11:02:53 am


वेद मानवजाति के लिए सृष्टि के आदि में ईश्वरप्रदत्त 'संविधान' हैं। अत: ऐसा नही हो सकता कि हमारा आज का मानव कृत संविधान तो नागरिकों के मूल कत्र्तव्यों का निरूपण करे और वेद इस विषय पर चुप रहे। वेदों में मानव और मानव समाज के आचार विचार और लोक व्यवहार से सम्बन्धित ऋचाऐं अनेकों हैं। वेद हमारे लिए राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक व आर्थिक सभी क्षेत्रों में सुव्यवस्था के प्रतिपादक हैं। प्रत्येक पग पर वहाँ हमारे लिए 'कत्र्तव्यवाद' एक धर्म बनकर खड़ा है। 'सत्यम् वद धर्मम् चर' कहकर वेद ने हमारी मर्यादा और मर्यादा पथ दोनों का ही निरूपण कर दिया है। अब हम यहाँ वेद के राष्ट्र संगठन पर विचार करेंगे। वेद से हम मात्र दस मंत्रों का चयन कर रहे हैं, जो हमारे मूल कत्र्तव्यों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं।


ये मन्त्र इस प्रकार हैं :-

समानो मन्त्र: समिति समानी समानं व्रतं सहचित्तमेषाम्।

समानेन वो हविषा जुहोमि समानं चेतो अभिसंविशध्वम्।।

(अथर्व. 6-64-2)


''वेद की यह ऋचा हमारे लिए बहुत ही सुन्दर कत्र्तव्य का मार्ग-दर्शन कर रही है। इसका कहना है कि हे मनुष्यों! तुम्हारे विचार समान हों। तुम्हारी सभा सबके लिए समान हो। तुम सबका संकल्प एक समान हो। तुम सबका चित्त एक समान भाव से भरा हो। एक विचार होकर किसी भी कार्य में एक मन से लगो। इसीलिए तुम सबको समान हवि या मौलिक शक्ति मिली है।''

वेद की यह ऋचा हम सभी राष्ट्रवासियों से अपील कर रही है कि हमारा एक लक्ष्य हो, एक विचार हो, एक भाव हो क्योंकि लक्ष्य, विचार और भाव की भिन्नता व्यक्ति को भटकाती है, राष्ट्र में नये-नये विवाद उत्पन्न करती है। इसलिए राष्ट्रीय एकता के लिए इन तीनों बिन्दुओं पर हमारी एकता स्थापित होनी अति आवश्यक है। हमारी सभाऐं अर्थात् हमारी विधानसभाऐं और संसद सभी नागरिकों के लिए समानता का व्यवहार करने वाली हों। इनमें जातीय आरक्षण का लफ ड़ा ना हो। हां, इनमें आर्थिक आधार पर पिछड़े लोगों के उत्थानार्थ विधि विधानों का प्रतिपादन होता हो।

2. दूसरा वेदमन्त्र है :-

सं जानी ध्वं सं प्रच्य ध्वं सं वो मनांसि जानताम्।

देवा भागं यथा पूर्वे संजानाने उपासते।

(अथर्व. 6-64-1)


अर्थात् हे मनुष्यो! (यह तुम्हारा कत्र्तव्य है कि) तुम समान ज्ञान प्राप्त करो। समानता से एक दूसरे के साथ सम्बन्ध जोड़ो, समता भाव से मिल जाओ। तुम्हारे मन समान संस्कारों से युक्त हों। कभी एक दूसरे के साथ हीनता का भाव न रखो। जैसे अपने प्राचीन श्रेष्ठ लोक के समय ज्ञानी लोग अपना कत्र्तव्य पालन करते रहे, वैसे तुम भी अपना कत्र्तव्य पूरा करो।''

उच्च और संस्कारित जीवन के लिए यह वैदिक ऋचा 'कत्र्तव्य पालन' को मानव समाज के लिए अनिवार्य बनाती है। यह स्पष्ट करती है कि जैसे प्राचीन काल में श्रेष्ठ लोग अपने कत्र्तव्य पालन में रत रहे वैसे ही हम भी उनका अनुकरण करते हुए कत्र्तव्य पालन में रत रहें। लोक व्यवस्था के लिए यह कत्र्तव्य कर्म परमावश्यक है। यदि पहले मन्त्र का प्रतिपाद्य विषय 'भावात्मक एकता' स्थापित करना है तो इस मन्त्र का प्रतिपाद्य विषय हमारी कत्र्तव्य पारायणता है। दोनों ही बातें राष्ट्रीय एकता अखण्डता और शान्ति व्यवस्था के लिए बहुत ही आवयक हैं।

3. तीसरा वेदमन्त्र है :-

समानी व आकूती: समाना हृदयानि व:।

समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति।।

(अथर्व. 6-64-3)


अर्थ-'हे मनुष्यो! तुम सबका संकल्प एक जैसा हो। तुम्हारा हृदय समान हो, तुम्हारा मन समान हो। तुमसें परस्पर मतभेद न हो। तुम्हारे मन के विचार भी ममता युक्त हों। यदि तुमने इस प्रकार अपनी एकता और संगठन स्थापित की तो तुम यहाँ उत्तम रीति से आनन्दपूर्वक रह सकते हो और कोई शत्राु तुम्हारे राष्ट्र को हानि नहीं पहुंचा सकता है।'' 

(लेखक की पुस्तक 'वेद महर्षि दयानंद और भारतीय संविधान' से)

Tags:    वेद   महर्षि दयानंद   भारतीय संविधान   
[3:43PM, 08/09/2016] ‪+91 99111 69917‬: दण्ड देने का अधिकारी राजा कौन? भाग-3

2016-09-03 08:45:50.0 राकेश कुमार आर्य



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'होती है राजा की यशवृद्घि'

न्यायानुसार राज्य चलाने वाले और दण्डादि देने वाले राजा की यशवृद्घि कैसे होती है? इसकी बहुत सुंदर उपमा मनुमहाराज ने दी है :-

'इस प्रकार न्यायपूर्वक दण्ड का व्यवहार करने वाले राजा का शिल-उञ्छ से निर्वाह करने वाले अर्थात निर्धन राजा का भी यश जैसे पानी पर डालने से तैल की बूंद चारों ओर फैल जाती है ऐसे संपूर्ण जगत में फैल जाता है।' (33/121)

यहां पर शिल खेत में गेंहू की फसल को काटने के उपरांत पड़ी रह गयी बालियों को तथा उञ्छ=पड़े रह गये दानों  को कहा गया है। शिल को देहात में लोग 'शिला' भी कहते हैं। जिसे लोग उठाते या बीनते देखे जाते हैं। महर्षि कणाद के विषय में कहा जाता है कि वे अन्न कणों अर्थात दानों को बीन-बीनकर अपनी आजीविका चलाते थे। उनके इस  पवित्र कार्य को अपनाने के कारण शिला बीनना कोई बुरा काम न मानकर व्यक्ति की ईमानदारी का सर्वोत्तम प्रमाण माना जाता है। इसलिए हमारे यहां एक मुहावरा भी चल गया कि-''शिल उञ्छ से जीना।''

'शिल उञ्छ' का उदाहरण देकर महर्षि मनु ने स्पष्ट किया है कि परिस्थितियां चाहे कितनी ही विषम और प्रतिकूल क्यों ना हों, न्यायशील राजा को अपना न्



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