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बच्चे देश के हैं लावारिस नहीं- सरकार 20 लाख स्ट्रीट चिल्ड्रन पर करेगी काम- दिया मिर्जा 

By समाचार नाऊ ब्यूरो | Publish Date: Fri ,03 Mar 2017 06:03:19 pm |


समाचार नाऊ ब्यूरो - सड़कों पर रहने वाले लावारिस नन्हे बच्चों के लिए अब प्रसन्न होने का समय है। आमतौर पर ‘स्ट्रीट चिल्ड्रन (लावारिस बच्चे)’ कहे जाने वाले 20 लाख से अधिक भारतीय बच्चे सुरक्षित देखभाल,पोषण, स्वास्थ्य और शिक्षा के बगैर जीते हैं। मेरे लिए वे सड़क पर नन्हें फूलों की तरह हैं, जो हमारी सामूहिक उदासीनता के बावजूद जिंदा हैं।
 हाल ही में मुझे सड़कों पर रहने के लिए मजबूर बच्चों के जीवन में बदलाव के लिए सरकार, गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) और नागरिकों के बीच भागीदारी का हिस्सा बनने के लिए दिल्ली आने का निमंत्रण दिया गया था। पहली बार देश में अब सड़कों पर रहने वाले बच्चों की देखभाल और सुरक्षा के लिए मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) है। एसओपी का उद्देश्य सड़क पर रहने वाले किसी भी बच्चे की जरूरतों की पहचान करने और उसके संचालन के लिए प्रक्रियाएं निर्धारित करना है। ये प्रक्रियाएं नियमों और नीतियों के मौजूदा ढांचे के भीतर ही होंगी और इनसे विभिन्न एजेंसियों के बीच समन्वय बढ़ेगा। यह इन बच्चों की देखभाल, सुरक्षा और पुनर्वास के लिए सभी हितधारकों की भूमिकाओं और जिम्मेदारियों को परिभाषित करने के दिशा-निर्देश हैं और यह इतनी सरल भाषा में है कि एक बच्चा भी इन्हें आसानी से समझ सकता है।
 
हम फिर से एसओपी की बात करते हैं। पहली बार उन्होंने हमें बताया कि आप और मैं तथा विभिन्न सरकारी एजेंसियां लावारिस बच्चों की कैसे मदद कर सकते हैं। एक उल्लेखनीय उदाहरण है कि सड़कों पर नजर आने वाले लावारिस बच्चों को देखे बिना हमारा एक दिन भी नहीं गुजर सकता है, लेकिन हम उन पर कोई ध्यान नहीं देते हैं। वे लगातार शारीरिक,मानसिक और यौन उत्पीड़न झेलते हैं। उनमें से कई फैंके गए भोजन को खाकर जीवित रहते हैं और उनके पास तन ढकने के लिए पर्याप्त कपड़े भी नहीं होते हैं। यह भी सत्य है कि अपराध बोध और दुरूख के कारण हममें से कई लोग उनसे आंखें नहीं मिला पाते हैं। उनकी पहचान का कोई सबूत भी नहीं होता है और आपदाओं के समय अगर उनकी मृत्यु हो जाए, तो वे किसी आंकड़े में भी शामिल नहीं होते हैं।
 
सरकारी एजेंसियों और जनता दोनों के द्वारा जब एसओपी को अक्षरशरू लागू किया जाएगा, तो इन परिस्थितियों में बदलाव आना तय है। एसओपी ने इन बच्चों के लिए  आधार कार्ड जारी करने, स्वास्थ्य बीमा देने और बैंक खाते खोलने का आग्रह किया है। यह सरकार में विभिन्न साइलो में कार्य करने की संस्कृति को समाप्त करने और हममें से ज्यादातर लोगों को नागरिक के रूप में सशक्त बनाना चाहता है, ताकि हम लावारिस बच्चों के अधिकारों के पक्ष में अपनी आवाज उठा सकें।
 
महिला और बाल विकास मंत्री श्रीमती मेनका संजय गांधी, राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की अध्यक्ष सुश्री स्तुति कक्कड़ और सेव द चिल्ड्रन संस्था के मेरे मित्रों के साथ एसओपी का शुभारंभ करना मेरे लिए एक बड़े उत्सव जैसा था।
 
एक कलाकार और कम्युनिकेटर के रूप में अपने हृदय के करीब इस मुद्दे के बारे में मैं जागरूकता फैलाने की कोशिश कर रही हूं और मेरे मन में बच्चों के लिए विशेष स्थान है। इतनी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद जब मैं उन्हें मुस्कुराते, खेलते और नाचते हुए देखती हूं, तो मैं सविनय कृतज्ञता से भर जाती हूं और यह मुझे याद दिलाता है कि मानव होने का अर्थ क्या है। उनमें से लाखों बच्चों को पीड़ा झेलते हुए, उत्पीड़न और खतरनाक माहौल में जीते हुए देखती हूं तो मेरा दिल टूट जाता है, लेकिन उसी समय मैं उनकी जिंदादिली से अभिभूत हो जाती हूं।
 
दरअसल मेरी दिल्ली यात्रा के दौरान मैंने महसूस किया कि कई बार बच्चे बेहतर तरीके से समझते हैं और हमारी तुलना में तेजी से सिखते हैं। कुछ लावारिस बच्चों सहित ऊजावान बच्चों की किलकारियों से गूंजते सरकारी स्कूल के दौरे के समय मुझे सिखाया गया कि मेरे माता-पिता से भी बेहतर ढंग से हाथों को कैसे धोया जाता है। सेव द चिल्ड्रन द्वारा स्कूलों को सुरक्षित स्थान बनाने के प्रयास में साफ सफाई की अच्छी आदत सुनिश्चित करने का यह अभियान है, जिसके तहत बच्चे अन्य जरूरी कौशल भी सिखते हैं। उन प्यारे बच्चों को भी खुशी देने के लिए मैंने उन्हें ‘जंगल ताली’ बजाना सिखाने का सोचा और उन्होंने उसके महत्व को कई वयस्कों की तुलना में जल्दी से समझा।
 
मैं अपने बच्चों के लिए कार्य करते रहने का संकल्प लेती हूं और मुझे यह कहते हुए प्रसन्नता हो रही है कि हमारी मंत्री श्रीमती मेनका गांधी देश भर में एसओपी के कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए सही व्यक्ति हैं। एक नागरिक के रूप में लावारिस बच्चों के मुद्दों के बारे में जागरूकता फैलाने के इस प्रयास में सरकार की मदद करना हमारी जिम्मेदारी है। इन बच्चों के लिए सम्मान, स्वास्थ्य और शिक्षा तक पहुंच सुनिश्चित करवाना आवश्यक है और यह इस मुद्दे पर जागरूकता फैलाकर तथा इसके साथ जुड़कर ही संभव है। इसके बाद बदलाव होगा है। मुझे उम्मीद है कि ‘लावारिस बच्चों’ के जीवन में सुधार के लिए शुरू की गई इस पहल को साकार करने में आप मेरे साथ होंगे।



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