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तो नारी का सहज स्वभाव कपट का है ? -पंडित नरेन्द्र प्रसाद दूबे 

By समाचार नाऊ ब्यूरो | Publish Date: Tue ,10 Jul 2018 09:07:32 am |


समाचार नाऊ ब्यूरो - बालकाण्ड में सती रामचन्द्र जी की परीक्षा लेने सीता का वेष लेकर जाती हैं। सती राम से कपट करती हैं जिसके वारे में गोस्वामी जी कहते हैः

"सती कीन्ह चह तहउँ दुराऊ। देखहु नारिसुभाउ प्रभाऊ।।"तो नारी का सहज स्वभाव कपट का है। इसी प्रसंग में जब सती लौट कर शिव जी के पास आती हैं तो वे पूछते हैं कि कैसे परीक्षा ली। सती कहती है कि उन्होंने कोई परीक्षा नहीं ली। शिव जी ध्यान लगा कर जान लेते हैं कि सती ने क्या किया था। शिव जी अपने मन में प्रण करते हैं कि अब सती के इस शरीर से उनका कोई शारीरिक सम्पर्क नहीं होगा। किन्तु सती तो महज़ एक स्त्री हैं, इसलिये उन्हें कुछ पता नहीं चलता। 

"सती हृदय अनुमान किय सब जानेउ सर्वग्य।

कीन्ह कपटु मैं शम्भु सन नारि सहज जड़ अग्य।।"

वे स्वयं भी मानती हैं कि नारियाँ तो स्वाभाविक रूप से जड़ और अज्ञानी होती हैं।

 

२। अयोध्याकाण्ड में जब मन्थरा कैकेई को फुसला रही है, कैकेई पहले यूँ सोचती हैः

" काने, खोरे, कूबरे कुटिल कुचाली जानि।

तिय विसेषि पुनि चेरि कहि भरतमातु मुस्कानि।।"

(रामचन्द्रप्रसाद की टीकाः जो काने, लँगड़े और कुबड़े हैं, उन्हें कुटिल और कुचाली जानना चाहिए। फिर स्त्रियाँ उनसे भी अधिक कुटिल होती हैं और दासी तो सबसे अधिक। इतना कहकर भरत जी की माता मुसकरा दीं।)

 

३। रामचन्द्र जी के वन चले जाने पर पुरी के लोग कैकेई की ही नहीं, सारी नारियों की निन्दा करते हुए कहते हैं:

" सत्य कहहिं कवि नारि सुभाऊ। सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ।।

निज प्रतिबिम्बु बरुकु गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति भाई।।"

(कवियों का कहना ठीक ही है कि स्त्री का स्वभाव सब तरह से अग्राह्य, अथाह और भेदभरा है। अपने प्रतिबिम्ब को कोई भले ही पकड़ ले किन्तु स्त्रियों की गति नहीम जानी जाती।)

 

४। अरण्यकाण्ड में अनसूया सीता को नारी धर्म की शिक्षा देते हुए कहती हैं:

" सहज अपावन नारि पति सेवत शुभ गति लहइ।"

(स्त्री तो सहज ही अपावन होती है...)

 

५। अरण्यकाणड में शूर्पणखा के प्रणयनिवेदन की भूमिका बाँधते हुए कागभुसुण्डि जी गरुड़ से कहते हैः

"भ्राता, पिता, पुत्र उरगारी। पुरुष मनोहर निरखत नारी।।

होइ विकल सक मनहिं न रोकी। जिमि रविमनि द्रव रबिहि बिलोकी।।"

(हे गरुड़, स्त्री सुन्दर पुरुष को देखते ही, चाहे वह भाई, पिता, पुत्र ही क्यों न हो, विकल हो जाती हैं और अपने मन को रोक नहीं सकती हैं जैसे सूर्य को देखकर सूर्यमणि पिघल जाती है।)

 

६। किष्किंधाकाण्ड में सीतावियोग में प्रकृतिवर्णन करते हुए रामजी कहते हैं:

"महावृष्टि चलिफूटि किंयारी। जिमि सुतंत्र भए बिगरहिं नारी।।"

(महावृष्टि से क्यारियाँ फूट गई हैं और उनसे ऐसे पानी बह रहा है जैसे स्वतंत्रता मिलने से नारियाँ बिगड़ जाती हैं।)

 

७। लक्ष्मणशक्ति के मौके पर राम जी विलाप करते हुए कहते हैं:

"जस अपजस सहतेउँ जग माहीं। नारि हानि विसेष दुख नाहीं।"

(मैं संसार मे यश अपयश ले लेता। स्त्री की क्षति कोई खास बात नहीं है।)

 

८। लंकाकाण्ड में रावण मन्दोदरी की सलाह ठुकराते हुए कहता हैः

"नारि सुभाव सत्य सब कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीं।

साहस, अनृत, चपलता माया। भय अविवेक, असौच अदाया।।"

(नारी के स्वभाव के बारे में कवि सत्य ही कहते हैं कि सदा ही उनके हृदय में आठ अवगुण रहते हैं: साहस, असत्य, चपलता, माया (छल कपट), भय, अविवेक, अपवित्रता, और निर्ममता।"

पंडित नरेन्द्र प्रसाद दूबे 



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