Breaking News
By समाचार नाऊ ब्यूरो | Publish Date:16:24:10 PM / Thu, Sep 8th, 2016 | Updated Date: Fri ,10 Feb 2017 11:02:13 am
1857 ई. की क्रांति की बात तो हमने सुनी है कि उस समय किस प्रकार क्रांति के विभिन्न केन्द्र देश में बन गये थे? इस रोमांचकारी घटना से भी हम लोग परिचित ना होते, यदि उसके विषय में स्वातंत्रय वीर सावरकर जैसे लोग हमें ना बताते कि यह विद्रोह नही, अपितु भारतीयों का स्वातंत्रय समर था। पर जब हम अतीत के पृष्ठों को उघाड़ते हैं तो पता चलता है कि ऐसे अवसर भारत में पूर्व में भी कई बार आये हैं, जब भारत वासियों में क्रांति! क्रांति!! और क्रांति!!! की धूम मचाई। क्रांति सफल नही हुई यह अलग बात है पर व्यवस्था के विद्रूपित स्वरूप को शुद्घ करने के लिए और उसे पूर्णत: परिवर्तित करने के लिए ‘शांति: शांति: शांति:’ का जाप करने वाले ‘क्रांति क्रांति क्रांति’ का जाप करने लगे, यह क्या थोड़ी बात थी?
पराजित होकर भी करते रहे संघर्ष
तुगलक वंश के अंतिम दिनों का प्रसंग चल रहा था। जब हम इस काल पर दृष्टिपात करते हैं तो सर्वत्र क्रांति के केन्द्र उगते, उभरते दिखाई देते हैं। हमें हमारा प्रचलित इतिहास कुछ ऐसी अनुभूति कराता है कि जो हिंदू राजा या राजवंश एक बार मुस्लिमों ने परास्त या नष्ट कर दिया, उसने पुन: कभी उठने का साहस नही किया। जबकि अब तक के वर्णन से यह कथन मिथ्या सिद्घ हो चुका है। ऐसे अनेकों प्रमाण हैं जब हमारे राजा या राजवंशों ने पराजित होने के दशकों पश्चात तक भी पुन: उठ खड़े होने के गंभीर प्रयास किये और मुस्लिम सुल्तानों को गंभीर चुनौती प्रस्तुत की।
तोमर नरेश वीर सिंह देव की सत्ता को मिली मान्यता
दिल्ली से उजडक़र इधर-उधर भटकते तोमरों ने अपने स्वतंत्रता संग्राम को जारी रखा। तोमरों के भीतर अपने राजवंश को पुन: स्थापित करने की तीव्र इच्छा थी। ‘ग्वालियर के तोमर’ नामक पुस्तक से हमें जानकारी मिलती है कि दिल्ली पर मुसलमानों की सत्ता स्थापित होने के उपरांत तोमर राजवंश का उत्तराधिकारी अचल ब्रह्म दिल्ली से हरिराज चौहान के पास अजमेर चला आया था, एवं सत्ता प्राप्ति के पुन:संघर्ष में पराजित होने पर चंबल क्षेत्र में स्थित ऐसाह नामक स्थान पर आकर निवास करने लगा।
इब्नबतूता की साक्षी है कि 1342 ई. के लगभग ग्वालियर पर तोमर शासक कमल सिंह या घाटम सिंह का शासन था। विभिन्न विद्वानों का निष्कर्ष है कि 1375 ई. के लगभग ग्वालियर पर वीर सिंह देव तोमर का शासन था। इस राजा को ही ग्वालियर का तोमर राजवंश का वास्तविक संस्थापक माना गया है।
तोमर शासक एक ओर दिल्ली से मुक्ति की योजनाएं बना रहे थे और दूसरी ओर दिल्ली के सुल्तानों की अधीनता स्वीकार कर रहे थे। (संदर्भ : ‘सलतनत काल में हिंदू प्रतिरोध’, पृष्ठ 331)
दिल्ली में चल रहे उत्तराधिकार के संघर्ष के काल में वीर सिंह देव तोमर ने भी अपनी शक्ति का विस्तार करना आरंभ कर दिया था। जब सुल्तान मुहम्मद शाह इटावा की ओर आया तो यहिया का कथन है कि यहां उससे वीरसिंह देव भी मिला था। सुल्तान ने उसे खिलअत (एक प्रकार का मान्यता प्रमाण पत्र) प्रदान किया और उसे लौटा दिया।
सुल्तान ने तोमर को बनाया मित्र
वास्तव में यह काल ऐसा था जब सुल्तान को हिंदू शक्ति की आवश्यकता थी। इसलिए सुल्तान ने राजा वीर सिंह देव तोमर को रूष्ट करना उचित नही, इसलिए खिलअत प्रदान कर उसकी सहानुभूति अर्जित करने का प्रयास किया। इस बात को राजा भी समझ रहा था कि उचित समय यही है, जब तोमरों की खोयी हुई प्रतिष्ठा को प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए राजा ने भी गरम लोहे पर चोट मारी और उसका लाभ प्राप्त करने में सफल रहा।
चंबल और दोआब का संघर्ष
दोआब एक ऐसा प्रांत रहा है, जिसने भारी क्षति उठाकर भी स्वतंत्रता संग्राम का ध्वज उठाये रखने में कभी संकोच नही किया। यह प्रांत कभी सोता नही था, अपितु झपकी लेता था और क्रांति की या विद्रोह की तनिक सी भी आहट सुनकर उठ खड़ा होता था। विद्रोह के किसी उचित अवसर का लाभ उठाये बिना किसी अवसर को दोआब ने अपने निकट से निकलने ही नही दिया।
तुगलक वंश जब धीरे-धीरे मूच्र्छावस्था में जा रहा था तो यह कैसे संभव था कि दोआब इस अवसर का लाभ न उठाता? दोआब जाग रहा था और जब समय बड़ी तीव्रता से भाग रहा था तो उस समय के काल प्रवाह को समझते हुए दोआब ने इस बार चंबल क्षेत्र को भी अपने साथ लगा लिया। यहिया हमें बताता है कि वीर सिंह देव सबीर राय, सुमेर अधरन, और मुकद्दम वीरभान ने एकजुट होकर दिल्ली की सल्तनत के विरूद्घ विद्रोह का बिगुल फूंक दिया। राय सुमेर और अधरन ने बलाराम कस्बे पर आक्रमण कर उसे नष्ट कर दिया और अनेक लोगों को मारा व बंदी बनाया।
ये मारना और बंदी बनाने का क्रम उन लोगों के विरूद्घ चला था जो किसी भी प्रकार से हिंदू शक्ति के उत्थान और स्वराज्य प्राप्ति के स्वतंत्रता संघर्ष में राजा के या मुकद्दम राय सुमेर आदि के विरूद्घ थे। अभियान को क्रांति में परिवर्तित किया जा रहा था और देश में सर्वत्र अराजकता का सा परिवेश बन चुका था।
इतिहासकार बसु हमें बताते हैं कि सुल्तान ने हिंदू शक्ति के इस पुनरूत्थान का विनाश करने के लिए अपने सैन्य दल को दो अभियानों में विभक्त कर दिया। एक अभियान का नेतृत्व इस्लाम खां को सौंपा गया तो दूसरे का नेतृत्व सुल्तान ने स्वयं ने संभाला। इस्लाम खां वीरसिंह देव के विरूद्घ भेजा गया तो अन्य स्वतंत्रता प्रेमी हिंदुओं के दमन के लिए सुल्तान स्वयं चला गया। यहिया के द्वारा हमें जानकारी मिलती है कि वीरसिंह पराजित होकर इस्लाम खान के आगे से भाग गया। इस्लाम ने भागते हुए अनेकों हिंदुओं का वध कर डाला। उसने तोमर प्रदेश को पूर्णत: नष्ट भ्रष्ट कर दिया। ‘गोपाचल आख्यान’ के अनुसार वीरसिंह देव ने इस्लाम खां के समक्ष क्षमायाचना की और उसे इस्लाम खां द्वारा दिल्ली ले जाया गया। क्रांति का एक नेता वीर सिंह<
All rights reserved © 2013-2024 samacharnow.com
Developed by Mania Group Of Technology.