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By समाचार नाऊ ब्यूरो | Publish Date:16:37:38 PM / Thu, Sep 8th, 2016 |
श्री उद्धव जी जो, श्रीकृष्ण के बाल सखा उनके सारथी बनकर कई प्रकार से सेवा की। उन्होंने कभी श्रीकृष्ण से कुछ नहीं माँगा। श्रीकृष्ण ने लीला संवरण से पहले उद्धव जी को बुलाया और कहा, " प्रिय उद्धव मेरे इस अवतार में बहुत से भक्तों ने मुझसे कुछ न कुछ माँगा और मुझसे पाया है, परन्तु तुमने कभी कुछ नहीं माँगा। मैं लीला संवरण से पहले तुम्हें कुछ प्रदान करके आनंदित होना चाहता हूँ। तुम कुछ अपने लिए मांगो"
जबकि उद्धव ने अपने लिए तो कुछ नहीं माँगा पर वह बाल्य काल से श्री कृष्ण के सँग रहे, पर उन्होंने कई बार श्रीकृष्ण की शिक्षाओं और उनके कार्यों में विसंगतियां पायीं और उनके मन में इसके पीछे छुपा कारण जानने की इच्छा बलवती हो उठी।
उन्होंने श्रीकृष्ण से पूछा, 'प्रभु आपने हमें जीवन-यापन के जो नियम बताए स्वयं उनको नहीं निभाया। *महाभारत के पूरे प्रकरण में आपकी भूमिका और आपके कार्यों में कुछ बातें मुझे समझ नहीं आईं। मैं आपके द्वारा किए गए कार्यों के पीछे जो कारण छिपे थे उनको जानने का इच्छुक हूँ। क्या आप मेरी जिज्ञासा को शांत करेंगे?'*
श्रीकृष्ण ने कहा, 'हे उद्धव! कुरुक्षेत्र के युद्ध में जो ज्ञान मैंने अर्जुन को दिया वह भगवद गीता है। और आज तुम्हारी जिज्ञासा का जो मैं समाधान करूँगा उसको *उद्धव-गीता* के नाम से जाना जायेगा। इसीलिए मैंने तुम्हें यह अवसर प्रदान किया है। आपने जो पूछना है निस्संकोच पूछिए'
उद्धव ने पूछा, ' हे कृष्ण सबसे पहले मुझे बताइए कि सच्चा मित्र कौन है?'
श्रीकृष्ण ने कहा सच्चा मित्र वह है जो अपने मित्र के बिना पुकारे भी उसकी सहायता के लिए आए।'
उद्धव: हे कृष्ण, आप तो पांडवों के प्रिय मित्र रहे। वह भी आपको अपना आपद्भन्ध्व (सब प्रकार की मुसीबतों से बचाने वाला) मानते थे। आपतो सर्वज्ञ हैं जो रहा है और जो होने वाला है उसका आपको पूरा ज्ञान है। अभी आपने सच्चे मित्र की परिभाषा बतायी पर आपने उस परिभाषा के अनुसार आचरण क्यों नहीं किया? आपने धर्मराज को पासे खेलने से रोका क्यों नहीं? ठीक है आपने रोका नहीं पर आपने भाग्य को धर्मराज के पक्ष में क्यों नहीं मोड़ दिया? जिससे धर्म की विजय सुनिश्चित जो जाती. आपने वो भी नहीं किया। तो जब धर्मराज अपना धन, राज्य यहां तक के अपने आप को बजी हार चुके थे, तब भी इस खेल को क्यों नहीं रुकवा दिया?जब उसने अपने भाइयों को दांव पर लगाना शुरू किया तब भी आप उस सभागार में जाकर उसे रोक सकते थे पर आपने उसे नहीं रोका या कम से कम जब दुर्योधन ने धर्मराज को उसके द्वारा हारे राज्य, सम्पदा और भाइयों के बदले में द्रौपदी जो कि सदैव पांडवों के लिए सौभाग्यशालीनी थी, को दाँव पर लगाने के लिए उकसाया, तब भी आप हस्तक्षेप कर सकते थे या अपनी शक्तियों के प्रयोग से पांसों को इस प्रकार से पलट सकते थे कि धर्मराज की विजय होती। बल्कि आपने हस्तक्षेप तभी किया जब द्रौपदी की मर्यादा लगभग भँग हो गयी थी और अब आप यह उद्घोषित करते हैं कि आपने वस्त्र देकर द्रौपदी का मान-भँग होने से बचाया, आप ऐसे कैसे कर सकते हैं – जिस नारी को बलपूर्वक सभागार में खींच कर लाया गया और इतने सारे लोगों के सामने उसका वस्त्र-हरण हुआ, उसकी मर्यादा कहाँ रह गयी? आपने किसकी रक्षा की? जब आप किसी जीव की विपत्ति के समय रक्षा करते हैं आपको आपद्भन्ध्व कहा जा सकता है। जब आपने विपत्ति के समय ही रक्षा नहीं की तो फिर क्या फायदा? क्या यही धर्म है?
जब उद्धव यह प्रश्न पूछ रहे थे, उनकी आँखों से अश्रुपात होने लगा। यह प्रश्न केवल उद्धव जी के नहीं हैं, हम सब जब महाभारत का पाठ करते हैं तो हमारे मन में यह प्रश्न आतें हैं। हम सबकी तरफ से यह जिज्ञासाएं उद्धव जी ने श्रीकृष्ण के सामने रखीं।
भगवान् श्रीकृष्ण हँस दिए, *'प्रिय उद्धव इस संसार का नियम है, विजय उसी की होती है जिसके पास विवेक है।जबकि दुर्योधन के पास विवेक था पर धर्मराज के पास नहीं था।*
उद्धव इससे भ्रमित हो गए। श्रीकृष्ण ने आगे कहा, ' यद्यपि दूर्योधन के पास बहुत सारा धन व् ऐश्वर्य था, पर उसको पासों के खेल का ज्ञान न था। इसीलिए उसने अपने मामा शकुनि को खेलने दिया जबकि दाँव वह स्वयं लगा रहा था। यह था उसका विवेक। *धर्मराज भी इसी प्रकार खेलने के लिए मुझे नियुक्त कर सकते थे। अगर खेल शकुनि और मेरे बीच होता तो तुम्हें क्या लगता है कौन जीतता?. क्या जो अंक मैं बोलता उसे वह फ़ेंक सकता था या मैं वो पासा फेकता जो अंक वह बोलता? इसको भी छोड़ दो....मैं धर्मराज को मुझे अपनी जगह न खिलाने के लिए तो क्षमा कर सकता हूँ पर विवेक के बिना उसने एक और भयंकर भूल करदी। धर्मराज ने मन में यह प्रार्थना की कि कहीं मैं उस सभागार में न पहुँच जाऊं जहाँ वह दुर्भाग्यवश इस खेल को खेलने के लिए बाध्य हो गया था। अपनी प्रार्थना से उसने मुझे बाँध दिया और मुझे उस सभागार तक पहुंचने ही नहीं दिया। मैं उस सभागार के बाहर खड़ा प्रतीक्षा कर रहा था कि कोई मुझे अपनी प्रार्थना से पुकारे। भीम, अर्जुन नकुल और सहदेव भी दुर्योधन को कोसने और अपने दुर्भाग्य के ऊपर विचार करने में ही इतना उलझ गए कि मेरा उन्हें स्मरण ही न रहा। जब दुशासन ने अपने भाई की आज्ञा से द्रौपदी को बालों से पकड़ कर खींचा तब भी उसने मुझे नहीं पुकारा। वह अपने सामर्थ्य के बल पर उस सभागार में वाद-विवाद करती रही। उसने मुझे नहीं पुकारा। आखिरकार उसे सद्बुद्धि तब आयी जब दुशासन ने उसका वस्त्र-हरण करना आरंभ किया तब उसने अपने आत्म-बल को छोड़ कर मुझे पुकारा, *'हे हरि! हे हरि! अभयं! अभयं''* जैसे ही उसने मुझे पुकारा तो मैं वहाँ पहुँचा और उसकी मान-रक्षा की। अब बताओ इस परिस्थिति में मेरी क्या भूल थी?
*'बहुत सुंदर व्याख्या कान्हा! मैं प्रभावित हुआ! लेकिन मैं अभी
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