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हिन्दुओं के प्रति बढ़ती असहिष्णुता

By समाचार नाऊ ब्यूरो | Publish Date: Wed ,08 Mar 2017 08:03:32 pm |


समाचार नाऊ ब्यूरो - पश्चिम बंगाल किस प्रकार इस्लामी कट्टरवाद के चंगुल में फंस चुका है, वह यहां एक के बाद एक प्रकाश में आ रहे घटनाक्रमों से स्पष्ट है। अभी हाल ही में प. बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस अध्यक्षा ममता बनर्जी ने जिस पर्व, सरस्वती पूजा को बहाना बनाकर एक फरवरी को लोकसभा में पेश हुए बजट का बहिष्कार  किया था, उसी उत्सव से संबंधित कार्यक्रमों को इस्लामी कट्टरपंथियों ने प. बंगाल के कुछ स्कूलों में नहीं  होने दिया।

जब राज्यसभा में मनोनीत सांसद स्वप्र दासगुप्ता ने उक्त मामला सदन में उठाना चाहा, तो तृणमूल सांसदों ने हंगामा शुरू कर दिया। क्या यह सत्य नहीं कि भारत में सैकुलरिस्टों के लिए असहिष्णुता और धार्मिक स्वतंत्रता के हनन पर चर्चा का मापदंड केवल चयनात्मक है? 

प. बंगाल में सरस्वती पूजा की एक लम्बी परम्परा रही है। इस अवसर पर प्रदेश सहित कई राज्यों में सार्वजनिक अवकाश भी होता है। घरों के अतिरिक्त छात्र और शिक्षक स्कूलों में विद्या की देवी मां सरस्वती की पूजा-अर्चना करते हैं किन्तु प. बंगाल के राजरहाट, हावड़ा सहित कई स्कूलों में कट्टर मुस्लिम संगठनों  के अव्यावहारिक हस्तक्षेप के कारण यह पूजा नहीं हो सकी।

पूरा मामला वर्ष दिसम्बर 2016 का है, जब तेहट्टा में कुछ छात्र, मुस्लिम कट्टरपंथियों के प्रभाव में आकर पैगंबर मोहम्मद की जयंती ‘नबी दिवस’ पर स्कूल परिसर में कार्यक्रम के आयोजन की मांग करने लगे। इस संबंध में जमात-ए-इस्लामी हिन्द की प्रदेश इकाई द्वारा स्कूलों में पुस्तकें भी बांटी गई थीं। तेहट्टा स्कूल प्रशासन द्वारा नबी दिवस पर कार्यक्रम को स्वीकृति नहीं दिए जाने पर विघटनकारी शक्तियों ने हंगामा शुरू कर दिया। शिकायत के बाद भी स्थानीय पुलिस मूकदर्शक बनी रही । 

जिसके कारण स्कूल कट्टरपंथियों द्वारा नियमित रूप से बाधित होने लगा। अंततोगत्वा प्रशासन के आदेश पर स्कूल को अल्पकाल के लिए बंद करना पड़ा। बसंत पंचमी के दिन जब स्कूली छात्रों ने हर वर्ष की तरह इस साल भी सामान्य रूप से सरस्वती पूजा का आयोजन करना चाहा, तो स्थानीय इस्लामी कट्टरपंथियों ने इसका पुरजोर विरोध शुरू कर दिया। बंद पड़े स्कूल को खोलने व सरस्वती पूजा को लेकर जब छात्रों ने मार्च निकाला, तो इसने ङ्क्षहसक रूप धारण कर लिया। पुलिस के लाठीचार्ज में कई छात्राएं घायल हो गईं। 

प. बंगाल की उक्त घटना, उसी रुग्ण दर्शन और कुत्सित विचारधारा से जनित है, जिसने वर्ष 1947 में वामपंथियों की सहायता से देश को मजहब के नाम पर दो टुकड़ों में बांट दिया था। उसी मानसिकता को बीते कई दशकों से छदम पंथनिरपेक्षकों द्वारा केवल वोटबैंक के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। ममता सरकार का कट्टर इस्लामी अनुयायियों के प्रति प्रेम सर्वविदित है। हाल ही में सैकुलरवाद के नाम पर स्कूल पुस्तिकाओं में रामधेनु (इंद्रधनुष) का नाम बदल कर रॉन्गधेनु (रंगधेनु) करना, इसकी तार्किक परिणति है।

धुलागढ़ की साम्प्रदायिक  अहिंसा पर मीडिया रिपोटर्स को भी ममता बनर्जी गलत ठहराती रहीं किन्तु पीड़ितों का कहना है कि प्रदेश सरकार उनकी सहायता करने के विपरीत उनके साथ हुई क्रूरता और जघन्यता पर पर्दा डालने की कोशिश कर रही है। गत वर्ष मुहर्रम के कारण दुर्गा पूजा में प्रतिमाओं के विसर्जन पर भी इसी सरकार ने आंशिक पाबंदी लगाई थी। जिसे कलकत्ता उच्च न्यायालय ने मजहब आधारित फैसला बताकर सरकार को कड़ी फटकार लगाई थी। 

प. बंगाल में गत कई माह से बहुसंख्यकों के प्रति असहिष्णुता निरंतर बढ़ रही है किन्तु सैकुलरिस्ट, वामपंथी और मीडिया का बड़ा भाग इस पर मौन है। वर्ष 2015 में दादरी में अखलाक की हत्या के बाद कई हफ्तों तक इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना को समाचारपत्रों ने असहिष्णुता के नाम पर सुर्खियों में जगह दी, टी.वी. स्टूडियो की बहस में चर्चा का केन्द्र बनी। राजनेताओं से लेकर अभिनेताओं और साहित्यकारों व बुद्धिजीवियों को देश असुरक्षित लगने लगा, पुरस्कार वापसी की मुहिम शुरू हो गई परन्तु प. बंगाल की  दुखद और चिंताजनक घटनाक्रमों पर सन्नाटा पसरा हुआ है। क्यों? 



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