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मोदी सरकार के तीन साल - सफलता की खेती के लिए कई वादे - विरोधी बोले पूरी तरह फेल

By समाचार नाऊ ब्यूरो | Publish Date: Mon ,22 May 2017 05:05:18 pm |


समाचार नाऊ ब्यूरो नयी दिल्ली : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के तीन साल पूरे होने के मौके पर भाजपा जहां जश्न की तैयारी कर रही है. वहीं, विपक्ष विफलताएं गिनाने में लगा है. विशेष श्रृंखला की कड़ी में कल आपने पढ़ा भाजपा सांसद भूपेंद्र यादव का नजरिया. आज पढ़िए मोदी सरकार के काम काज को लेकर विपक्ष की राय. अभी जब भाजपा केंद्र में सत्ता के तीन वर्षों के जश्न की तैयारी में लगी है, तो विपक्ष को उसके विषय में किसी श्वेत या कि श्याम फैसला सुनाने से बाज आना चाहिए. कोई भी सरकार कुछ न कुछ उपलब्धियों से पूर्णतः रहित नहीं होती, न ही किसी भी सत्तासीन के पदचिह्न कालिख के छीटों से पूरी तरह बेदाग होते हैं

दोषों को एक जैसा उजागर करता हुआ एक संतुलित बैलेंसशीट प्रस्तुत किया जा सके. 
तीन वर्ष बाद कैसा दिखता है भाजपा का यह बैलेंसशीट? पहले सफलताएं ली जायें. मई, 2016 में आरंभ उज्ज्वल योजना के अंतर्गत एक बड़ी सब्सिडी के साथ मुहैया की जाने वाली खाना पकाने की गैस ने गरीबों के जीवन पर एक असर छोड़ा. प्रधानमंत्री जन-धन योजना के क्रियान्वयन ने वित्तीय समावेशन की एक ऊंचाई का स्पर्श किया.

सरकारी आंकड़ों के अनुसार, इसके अंतर्गत 25 करोड़ बैंक अकाउंट खोले गये. यद्यपि, आज भी उनमें से कुछ शून्य शेष या शून्य लेन-देन से ऊपर न उठ सके. विपक्ष में रहते हुए भाजपा ने स्वयं ही कई वर्षों तक जिसका क्रियान्वयन रोके रखा था, उस जीएसटी अधिनियम का पारित होना भी एक सकारात्मक कदम रहा. बुनियादी ढांचे, खासकर सड़कों से संबद्ध कुछ परियोजनाएं परवान चढ़ीं.

सबसे बढ़ कर इस सरकार ने प्रचार तथा प्रस्तुति में पिछली सभी सरकारों को पीछे छोड़ दिया. अब विफलताओं की बारी. रोजगारों के सृजन तथा किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य से संबद्ध वायदों का स्पष्ट उल्लंघन किया गया. हमारी आबादी के 60 प्रतिशत की आजीविका का आधार कृषि आज भी संकट के दौर में है और किसानों की आत्महत्याओं की दर चिंतनीय रूप से ऊंची है. तथ्य यह है कि स्वयं सरकार की एक भागीदार शिवसेना ने एक ऐसे वक्त में भाजपा द्वारा जश्न की तैयारी पर सार्वजनिक आपत्ति प्रकट की है, जब देश के किसान इतनी दुर्दशा झेल रहे हैं. वायदे करने एवं वायदे पूरे करने के बीच गहरी खाई की एक अगली मिसाल रोजगारों का सृजन न कर पाना है.

मोदीजी ने दो करोड़ रोजगार देने का वचन दिया था. जिस देश में 65 प्रतिशत आबादी 35 वर्ष से कम उम्र की हो, वहां इस वायदे का एक अप्रतिम आकर्षण था. पर वास्तविकता क्या कहती है? सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2016-17 के दौरान विनिर्माण, निर्माण एवं आइटी समेत आठ प्रमुख क्षेत्रों में केवल 2.13 लाख रोजगार सृजित किये जा सके. जैसा एक स्तंभकार पत्रलेखा चटर्जी ने बताया है, अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआइसीटीई) के अनुसार, इंजीनियरिंग कॉलेजों से प्रतिवर्ष निकलते आठ लाख इंजीनियरों में 60 प्रतिशत से भी अधिक इंजीनियर आज बेरोजगार ही रह जाते हैं. इतने कम रोजगार सृजित किये जाने की वजहों में एक यह है कि निजी क्षेत्र में पूंजी निर्माण, जो कुल सावधि पूंजी निर्माण का 75 प्रतिशत होता है, 2016 की तुलना में 2017 में सिर्फ दो प्रतिशत की मामूली वृद्धि दर्ज कर सका.

कारोबारी सुगमता के अहम क्षेत्र में शायद ही कोई सुधार हो पाने से भी इसका संबंध है. सरकार इसके विरुद्ध चाहे जो भी दावे करे, कारोबारी सुगमता के मामले में विश्वबैंक द्वारा दी गयी रैंकिंग में भारत को 130वां स्थान ही मिल सका है. कारोबार शुरू करने में हमारा स्थान 155वां, निर्माण की अनुमति हासिल करने में 185वां और अनुबंध के क्रियान्वयन में 166वां है. मेक इन इंडिया के बहुप्रचारित नारे की तो यह हालत है!  तथ्य यह है कि नारे गढ़ने में इस सरकार की महारत में कोई खोट नहीं निकाली जा सकती.

स्वच्छ भारत की घोषणा अत्यंत तामझाम के साथ की गयी, मगर कुछ बड़ी हस्तियों की तसवीरें प्रकाशित होने के अलावा शायद ही कोई अन्य उपलब्धि हासिल की जा सकी, क्योंकि इस नारे को स्वच्छता तथा कचरा निस्तारण की एक राष्ट्रव्यापी संस्थागत योजना का आधार नहीं दिया गया. इसी तरह, मां गंगे का नारा गढ़ा तो गया, पर गंगा को स्वच्छ करने अथवा उसकी अविरलता में बाधक कारकों के उन्मूलन की दिशा में लगभग कुछ भी नहीं किया गया. लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री द्वारा योजना आयोग को समाप्त किये जाने की घोषणा शान के साथ की गयी, मगर उसकी जगह लाये गये नीति आयोग की वस्तुतः क्या भूमिका है, इसे अब तक कोई भी पूरी तरह समझ नहीं सका.

यदि भारत का सर्वांगीण विकास सुनिश्चित करना इसकी एक जिम्मेवारी है, तो यह कहीं भी दिख तो नहीं रहा. बिहार जैसे अत्यंत कम विकसित राज्यों को विशेष दर्जा दिये जाने के आश्वासनों के बावजूद, वैसा नहीं किया गया, जबकि वे इसके पूरे हकदार हैं. सूचना के अधिकार के तहत एक प्रश्न के उत्तर में नीति आयोग ने यह भी बताया है कि 2015 में प्रधानमंत्री द्वारा बिहार को 125,000 करोड़ रुपयों के विशिष्ट पैकेज के वायदे का क्या हुआ, इस संबंध में उसे कुछ भी नहीं पता है.

यदि आर्थिक विकास अधर में लटका है, तो सामाजिक सद्भाव में भी पिछले तीन वर्षों में साफ गिरावट आयी है. हिंदुत्व की महान विरासत का भीड़तंत्र के उन भड़काऊ अनपढ़ दलपतियों के हाथों अवमूल्यन किया गया है, जो गौरक्षा के नाम पर लोगों की हत्याएं करते और दूसरे धर्मों के लोगों के विरुद्ध घृणा फैलाते हैं. अतिराष्ट्रवादियों ने राष्ट्रीयता की उच्च भावना भ्रष्ट कर डाली है, जो असहमति के किसी भी रूप को राष्ट्रद्रोह का कृत्य मानते हैं. एंटी रोमियो दल की आड़ में स्वयंभू नैतिक पुलिसकर्मी लोगों को धमकाते फिरते हैं.

भारत की बहुवादी तथा बहुसमावेशी बुनावट के विरुद्ध नित नये खतरे पैदा किये जा रहे हैं. इनके अतिरिक्त कुछ अन्य चिंताएं भी अपनी जगह मौजूद हैं. कश्मीर के सवाल इस सरकार जैसा नीतिगत पक्षाघात इसके पूर्व और किसी भी सरकार ने प्रदर्शित न किया. अपनी नाटकीयताओं के बावजूद, इस सरकार की विदेश नीति में खासकर हमारे पड़ोस के लिए और उसमें भी पाकिस्तान के संबंध में अभी भी किसी रणनीतिक सुसंगति का सर्वथा अभाव ही दिखता है.

भ्रष्टाचार का खात्मा इस सरकार का एक घोषित लक्ष्य है, और यह प्रशंसनीय भी है, किंतु यह भाजपा शासित राज्यों से आते गंभीर आरोपों की अनदेखी कर केवल विपक्ष पर ही केंद्रित है. संक्षेप में, सत्ता के तीन साल पूरे करने के अवसर पर भाजपा के लिए आत्मावलोकन हेतु बहुत कुछ है. इस देश के कई लोगों के मन में एक सवाल है कि क्या यह मौका जश्न के काबिल भी है



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