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विपक्ष वाले नादान हैं उनके पास न शक्ति न भक्ति - शिक्षाविद निर्मल मिंज

By समाचार नाऊ ब्यूरो | Publish Date: Fri ,03 Feb 2017 01:02:57 pm |


समाचार नाऊ ब्यूरो  - 90 बरस के कुड़ुख भाषा के झारखंड की माटी  के महान  योद्धा शिक्षाविद निर्मल मिंज को  साहित्य अकादमी का भाषा सम्मान 2016 दिया जायेगा। कुड़ूख भाषा के क्षेत्र में विशेष काम करने के लिए सम्मानित करने के लिए उनके नाम को चुना गया है। यह भाषा झारखंड के उरांव जनजातियों के बीच काफी प्रचलित है। एक बातचीत में उन्हों ने जो कुछ कहा वह अपने आप में अहम् है .

आपको भाषा के क्षेत्र में काम करने के लिए साहित्य अकादमी अवार्ड के लिए चुना गया है। झारखंडी भाषा की ताजा स्थिति के विषय में कुछ कहना चाहेंगे?

देखिये, झारखंड के आदिवासी भाषाओं की जो परिस्थिति थी अभी भी दयनीय हालत में है। इन भाषाओं के प्रति सरकार का दृष्टिकोण अभी तक पूरी तरह से नहीं बदला है। जो भी कहिये अगर मिशनरीज् इन भाषाओं के लिए काम नहीं करते, तब ये भाषाएं अब तक लुप्त हो जातीं...! मुंडारी भाषा के लिए होपमैन साहब ने इनसाइक्लोपीडिया निकाला। कुड़ूख भाषा के लिए बडियन हॉन ने कुड़ूख ग्रामर लिखा। इसी तरह से दूसरी आदिवासी भाषाओं के लिए काम किया गया। समय बीतने के साथ जैसे जैसे लोगों की समझ विकसित हुई वो सक्रिय जरूर हुए लेकिन, गंभीरता बहुत कम लोगों ने दिखायी।

कुड़ूख भाषा के विकास के लिए कौन कौन से काम किये गये हैं?

चूंकि मैंने अपनी जिंदगी का लंबा वख्त कुड़ूख भाषा को समर्पित किया है इसलिए मैं इसी बारे में बताना ही चाह रहा था। जिन लोगों ने कुड़ूख में काम किया है उनमें से एक लोहरदगा के दड़वे कुजूर ने कुड़ूख कविता की छोटी पुस्तक प्रकाशित करवायी थी। उसके बाद युयूस तिग्गा ने इस भाषा में काम किया और बाद में संत पॉल स्कूल के एक शिक्षक अहलाद तिर्की ने कुड़ूख में काम किया। फिर सी. एन. तिग्गा ने सरकार के साथ मिलकर इस भाषा के लिए काम किया। (आंखें बंद कर कुछ क्षण सोचने लगते हैं) मुझे याद है कि शांति प्रकाश बाखला ने भी कुड़ूख भाषा में काफी कुछ लिखा। कवि और गायक जस्टिन एक्का ने तो अपनी कविता और गाने से इस भाषा के प्रसार में अपना योगदान दिया। उनके गाने सभी चर्च और आदिवासी समाज के कार्यक्रम में अब भी प्रचलित हैं। आपको बताउं कि जस्टिन ने मेरी छत्रछाया में ही काम शुरू किया था। वो आकाशवाणी में भी काम करते थे। हालांकि, इन सभी के बाद जनता के बीच इन कामों का उतना प्रचलन नहीं हो सका।

हमने सुना है कि स्कूल में पढ़ने के दौरान आपका झुकाव कुड़ूख भाषा की ओर ज्यादा था?

देखिये, मेरे काम करने का तरीका बहुत अलग था। क्योंकि मुझमें इस तकनीक की बुनियान हाई स्कूल में पड़ गयी थी। मैंने 1946 में एस.एस हाई स्कूल गुमला से मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली थी। स्कूल के दिनों का एक वाकया मुझे याद आता है जब मैं नौवीं कक्षा का स्टूडेंट था, मेरे टीचर एस.एन. सहाय को हमारी कुछ बातें अच्छी नहीं लगीं। हम सभी दोस्त चिवाहो... नवाहो... बदलाहो... कहते हुए उछल कूर किया करते थे। उनको यह अच्छा नहीं लगा। वो अपनी लंबी छड़ी निकाल कर स्कूल ऑफिस के सामने खड़े हो गये और हमसे कहने लगे कि तुम लोग क्या कर रहे हो? क्या बंदर की भाषा चीं.. चा.. बोलते हो? उनकी ये प्रतिक्रिया मेरे ह्दय में चुभ गयी। मैंने उसी जगह मन में प्रतिज्ञा कर ली कि मैं इसी भाषा के उत्थान के लिए अपनी जिंदगी समर्पित कर दूंगा। यही भाषा कुड़ूख भाषा थी। उस दिन के बाद मैंने अपने बड़े भाई से कुड़ूख भाषा में लिखी चिट्ठी से पत्राचार शुरू कर दिया। 

उज्जवला पत्रिका में पहला लेख

मैं 1949-50 में रांची कॉलेज में पढ़ने चला आया। उसी समय कुड़ूख भाषा में उजाला पत्रिका प्रकाशित होती थी, कांके से। युयूस तिग्गा पत्रिका पब्लिश करते थे। उन्होंने हमें ललकारा कि हम क्यों नहीं कुड़ूख भाषा में लिखते हैं? यही प्रभाव था कि मैंने कुड़ूख भाषा में एक लेख लिखा जो उजाला में पब्लिश भी हुआ। मेरे लिए यही मेरा पहला लिखित प्रकाशन था। मुझे दो बार अमेरिका जाने का मौका मिला। इसी दौरान मैंने 1968 में शिकागो युनिवर्सिटी से पीएचडी डिग्री ले ली। पढ़ाई पूरी कर भारत लौट आया। उस समय तक यहां कुड़ूख पढ़ाने लिखाने की कोई व्यवस्था नहीं थी। लेकिन, मुझे गोस्सनर थियोलॉजिकल कॉलेज में पढ़ाने का मौका मिला। 1968 में मुझे वहां का प्रिंसिपल बना दिया गया।

54 रूपये 50 पैसे और 1971 में गोस्सनर कॉलेज की स्थापना

1971 में मेरे सामने एक और चुनौती थी। एमए की पढ़ाई कर चुके तीन नौजवानों ने मुझसे अनुरोध किया कि क्यों नहीं मैं एक साइंस और आर्ट्स कॉलेज शुरू कर दूं। हमने प्रयास शुरू और नाम रखा गोस्सनर कॉलेज। फिर हमने अलग अलग बस्तियों में लोगों से बातचीत करनी शुरू की। लोगों के ही सहयोग से हमारे पास 54 रूपये 50 पैसे जमा हो गये। पर इतने पैसों से कॉलेज शुरू करना संभव नहीं था। ईश्वर पर भरोसा था और इसी भरोसे के सहारे पहली नवंबर 1971 को 10 शिक्षक और 29 विद्यार्थियों के साथ हमने कॉलेज की नींव रखी। उस समय आर्ट्स और कॉमर्स की कक्षाएं ली जाती थीं। 

थर्ड डिविजन को एडमिशन में प्राथमिकता

कॉलेज में एडमिशन लेने के लिए एक अनोखी शर्त थी। यह शर्त कि एडमिशन में तीसरी श्रेणी में पास होने वाले बच्चों को प्राथमिकता दी जाती थी। उसके बाद दूसरी श्रेणी के बच्चों और फिर पहली श्रेणी में पास होने वाले बच्चों को जगह दी जाती थी। क्योंकि पहली और दूसरी श्रेणी में पास करने वाले बच्चों को कहीं भी एडमिशन मिल सकता था। लेकिन, तीसरी श्रेणी में पास करने वाले बच्चों के लिए हर जगह दरवाजा बंद होता था। इस विचारधारा का लोगों ने समर्थन किया और बाढ़ के जैसे स्टूडेंट्स आने लगे।

दूसरी बात मेरे मन में यह थी कि झारखंड की भाषा और संस्कृति को आगे बढ़ाने के एक औजार के रूप में झारखंड की नौ भाषाओं की पढ़ाई एमआईएल में शुरू किया जाये। यह प्रस्ताव



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