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नेपाल का गहराता संकट

By समाचार नाउ ब्यूरो | Publish Date:18:44:51 PM / Thu, Dec 24th, 2015 |


चार महीनों से जारी मधेसियों के आंदोलन के मद्देनजर नेपाल सरकार ने रविवार को संविधान में संशोधन करने का अहम फैसला लिया। भारत ने इसका स्वागत भी किया। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कहा कि इस फैसले से नेपाल में जारी गतिरोध का हल ढूंढ़ने में मदद मिलेगी। एक झटके में ऐसा लगा कि नेपाल की केपी शर्मा ओली की सरकार ने मधेसियों की मांग पर उदारता दिखाई है। उनकी इस उदारता से नेपाल में हालात बदलेंगे। यह उम्मीद जगी कि मधेसी और आदिवासी समुदाय नेपाल सरकार के इस फैसले के साथ खड़े नजर आएंगे। वहां अशांति का दौर खत्म होगा और संशोधन के जरिये सभी समुदाय और मूल के लोगों का प्रतिनिधि-संविधान सामने आएगा। लेकिन संशोधन की यह उदारता भी वहां की मधेसी पार्टियों को रास नहीं आई। मसौदा तैयार करने की पहल का इंतजार किए बगैर इन पार्टियों और उनके साझे मोर्चे ने सरकार के इस फैसले को खारिज कर दिया। लगे हाथ आंदोलन जारी रखने का ऐलान भी कर दिया। जाहिर है नेपाल सरकार की इस उदारता में भी कहीं न कहीं कोई पेंच है। संयुक्त लोकतांत्रिक मधेसी मोर्चा के नेताओं ने अपनी त्वरित प्रतिक्रिया में दो टूक कहा कि इस फैसले से संकट के समाधान की उम्मीद नहीं है। संयुक्त लोकतांत्रिक मधेसी मोर्चा की लड़ाई मुख्यत: राज्य के पुनर्गठन समेत लोकसभा व राज्यसभा क्षेत्रों के निर्धारण, संवैधानिक संस्थाओं में समानुपातिक व्यवस्था और नागरिकता के मुद्दे पर है। उनकी मांग है कि भारत की मध्यस्थता में 2008 में मधेसी पार्टियों और नेपाल सरकार के बीच हुए समझौते पर अमल किया जाए। मधेसी पार्टियां प्रारंभ में एक तराई प्रदेश की मांग पर अड़ी थीं। लेकिन बाद में वे पूर्वी और पश्चिमी मधेस राज्य पर सहमत हो गईं। लेकिन संविधान में सात जिलों का सिर्फ एक मधेस राज्य बनाने का प्रावधान किया गया। संविधान में संशोधन की ताजा घोषणा में कहा गया है कि राज्यों के पुनर्गठन के लिए एक राजनीतिक समिति बनाई जाएगी। मधेसी दलों का एतराज इसी को लेकर है। उनका कहना है कि जब पूर्व में राज्य पुनर्गठन आयोग और संविधान सभा की एक समिति इस पर अपनी रिपोर्ट दे चुकी है तो फिर राजनीतिक समिति बनाने का औचित्य क्या है? आयोग और समिति की रिपोर्ट के आधार पर संशोधन की बात क्यों नहीं कही गई? उनकी आशंका है कि राजनीतिक समिति अगर जरूरी नहीं समझेगी तो राज्य के पुनगर्ठन की मांग ठंडे बस्ते में डाली जा सकती है। इसी तरह प्रत्येक जिले में लोकसभा की एक सीट आरक्षित कर बाकी क्षेत्रों को जनसंख्या के आधार पर सृजित करने का फैसला भी चतुराई भरा है। इससे 75 सीटें पहले आरक्षित हो जाएंगी। नतीजा होगा, आबादी के बावजूद मधेसी वहां की राजनीति में हाशिए पर रहेंगे। इतना ही नहीं, उनका विरोध राज्यसभा में सीटें आरक्षित करने पर भी है। संयुक्त लोकतांत्रिक मधेसी मोर्चा के नेता देवेन्द्र यादव का कहना है कि पहले तय हुआ था कि भौगालिक आधार पर प्रत्येक राज्य से राज्यसभा की एक सीट आरक्षित होगी और बाकी जनसंख्या के आधार पर प्रत्येक राज्य से सीटें तय होंगी। लेकिन इसको भी दरकिनार कर दिया गया। ऐसे में संशोधन का यह फैसला आंदोलन को कमजोर करने की कोशिश भर है। अस्थिरता के ढाई दशक नेपाल बीते ढाई दशक से अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है। 80 के दशक में वहां लोकतंत्र बहाली की मांग पर आंदोलन ने जोर पकड़ा। 1990 में पहली बार वहां के राजा बिरेंद्र ने लोकतंत्र बहाली की घोषणा की। इसके बाद लोकतांत्रिक सरकार बनी। लेकिन 1996 में माओवादियों ने विद्रोह का बिगुल फूंका। उनका यह युद्ध एक दशक लंबा चला। इसमें 16 हजार लोग मारे गए। इस बीच 2005 में किंग ज्ञानेन्द्र ने सत्ता पर कब्जा कर लिया तो माओवादियों समेत सभी राजनीतिक दल राजशाही के खिलाफ एकजुट हुए। 2006 में भारत के हस्तक्षेप से वहां माओवादियों के हिंसक आंदोलन का दौर खत्म हुआ और शांति समझौता हुआ। लेकिन अगले ही साल मधेसी आंदोलन ने जोर पकड़ लिया। इस आंदोलन का अंत भी भारत की मध्यस्थता में हुए समझौते के साथ हुआ। इसके बाद 2008 में पहली संविधान सभा अस्तित्व में आई। इसका कार्यकाल 2012 में खत्म हो गया, लेकिन संविधान का मसौदा पूरा नहीं हो सका। 2013 में दूसरी संविधान सभा गठित हुई। इसने अपने कार्यकाल के दो वर्ष में संविधान का मसौदा तैयार कर लिया। जुलाई में इसे संविधान सभा में पेश किया गया और 20 सितंबर को इसे पारित कर दिया गया। दरअसल ऐसा इसलिए संभव हुआ, क्योंकि चार बड़ी पार्टियों ने आपस में समझौता कर आपसी सहमति से मसौदा तैयार किया और संख्या बल के आधार पर इसे पारित करा लिया। मधेसी और आदिवासी समुदाय ने संविधान के इस मसौदे का तीखा विरोध किया, लेकिन संविधान सभा में संख्या बल के आगे उनकी एक न चली। बहरहाल, नेपाल एक बार फिर उग्र आंदोलन के अखाड़े में तब्दील हो गया है। बीते चार महीनों में 60 लोग मारे जा चुके हैं, लेकिन समाधान निकलता नजर नहीं आ रहा है। गहराता संकट इस बार चार महीने से जारी आंदोलन का वहां के जनजीवन पर गहरा असर पड़ा है। दरअसल मधेसी आंदोलनकारियों की नाकेबंदी के कारण भारत से रसद, ईंधन और आम उपभोक्ता वस्तुएं वहां नहीं पहुंच पा रही हैं। इनकी कीमतें न केवल आसमान छू रही हैं, बल्कि खुले बाजार में उपलब्धता भी सीमित रह गई है। हालात इतने बदतर हो गए हैं कि अस्पतालों में ऑपरेशन तक पर पाबंदी लग गई है। बिजली का संकट है। पर्यटकों की आवाजाही नगण्य हो गई है। कहते हैं कि 33 सालों में पहली बार नेपाल नकारात्मक आर्थिक विकास दर की राह पर है। करीब ढाई हजार उद्योगों में ताले लग चुके हैं। इस वर्ष भूकंप ने न केवल नौ हजार से अधिक जानें लीं, बल्कि एक लाख लोगों को आर्थिक तंगी के दलदल में धकेल दिया। अब सियासी संकट के कारण लोगों की आर्थिक सेहत बिगड़ रही है। नेपाल राष्ट्र बैंक के ताजा अध्ययन के मुताबिक करीब आठ लाख लोग आर्थिक तंगी के शिकार हो सकते हैं। नेपाल के ज्यादातर बाजारों में कारोबार ठप है। बेरोजगारी बढ़ रही है। नेपाल में किसी भी तरह का संकट पैदा हो, उसकी आंच सीमा से लगे भारत


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